जन चेतना यात्रा 20 दिसंबर को कलकत्ता से चलकर प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र बनारस पहुंची। जब शोषित और पीड़ित तबकों के लोगों के बीच उम्मीद की जगह निराशा ने लिया हो, तो ये जरूरी है कि हम एक बार फिर क्रांतिकारी बदलाव का मशाल जलाएं।
— शांभवी शर्मा और सौर्य मजूमदार
अनुवाद: कॉ. प्रभात
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मंगलवार की दोपहर धनबाद के लिए एक आम दिन था। शहर के बाहरी हिस्से में स्थित पुटकी चौक पर, सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल से वापस लौटती कुछ लड़कियां ठेले पर समोसे और कचौरी खा रहीं थी।
इसी जगह, 1990 में, संघबद्ध कोयला श्रमिकों की एक बड़े जत्थे ने अयोध्या जा रही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को कुछ समय के लिए रोक दिया था। अविभाजित बिहार में लालू प्रसाद यादव सरकार द्वारा तत्कालीन भाजपा मंत्री को समस्तीपुर में गिरफ्तार करना सर्वविदित है लेकिन आज इस जगह पर मेहनतकशों के इस राजनैतिक पहल को याद करने के लिए केवल चौक के सामने पोल पर लहराता हुआ संगठन का फटा पुराना हरे और लाल रंग का झंडा है।
लेकिन पिछले मंगलवार को शिथिल पड़े इस इलाके में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ, जब जन चेतना यात्रा के नारों के गूंज ‘आडवाणी का रथ रोका था, अडानी का भी रोकेंगे’ ने पूरे इलाके को एक नई उम्मीद और उत्साह से भर दिया।
सड़क किनारे की पथ-सभा कलकत्ता से प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के रास्ते में होने वाली कई बैठकों में से एक थी। इस यात्रा की शुरूआत 6 दिसंबर से किया गया। इसी दिन ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया था। जन चेतना यात्रा 25 से अधिक छोटे और बड़े संगठनों द्वारा आयोजित किया गया जिसमें श्रमिक, किसान, छात्र – युवा, महिला, आदिवासी, दलित, गांधीवादी और अन्य संगठनों का प्रतिनिधित्व है, जो आज भारत में नया कॉर्पोरेट फासीवादी शासन के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं।
“फासीवाद पर बहस नहीं की जा सकती…”
“…इसे सड़कों पर लड़ना होगा।” फ्रेंको तानाशाही के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए स्पेनिश क्रांतिकारी ब्यूनावेंटुरा दुरुति के प्रसिद्ध शब्दों को दोहराते हुए, मजदूर क्रांति परिषद के साथी कुशल देबनाथ ने बुधवार को पटना के गांधी संग्रहालय में यात्रा द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में निष्कर्ष के रूप में इसे दोहराया। सम्मेलन में कई वक्ताओं ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंकना ज़रूरी है, लेकिन संगठित जन संघर्षों के बिना यह सफल नहीं हो सकता।
सम्मेलन में आगे, आपातकाल के खिलाफ बिहार के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान उभरे मजदूर नेता अरविंद सिन्हा ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पिछले तीन दशकों में भारत में कई सत्तारूढ़ दलों में सत्तावादी और व्यक्तित्व-केंद्रित प्रवृत्ति कैसे विकसित हुई है। कॉ. सिन्हा ने जोर देकर कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को जो चीज इन सबसे अलग करती है, वह इसकी संगठनात्मक संरचना और उसकी फासीवादी विचारधारा है।
कई संगठन, जिन्होंने पहले 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए ‘नो वोट टू बीजेपी’ नामक अभियान शुरू किया था, राज्य में जन चेतना यात्रा में शामिल हुईं। कोलकाता के एस्प्लेनेड से शुरू होकर, जहां पहले अभियान का समापन हुआ था, यह यात्रा हावड़ा, हुगली, बांकुरा और पुरुलिया जिलों से होकर गुजरा। इन जगहों पर उद्योगों के तालाबंदी और क्षेत्र से काम के लिए देश के अलग अलग जगहों में जाने के लिए मजबूर प्रवासी मजदूरों के सवाल जनता के बीच सबसे अधिक गूंजते रहे।
आज से नौ साल पहले मोदी सरकार ने निजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ योजना की शुरुआत की थी और रोजगार पैदा करने के वादे के साथ कॉरपोरेट्स को मुफ्त, टैक्स में छूट और अन्य प्रोत्साहनों की घोषणा की थी। वित्त मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल कर राजस्व में कॉर्पोरेट टैक्स की हिस्सेदारी 2014-15 में 34.5% से घटकर 2021-22 में 24.7% हो गई। वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले हर साल दो करोड़ नई नौकरियों के वादे के बावजूद, असंगठित क्षेत्र में श्रम बल की भागीदारी में गिरावट आई है। संगठित क्षेत्र में नौकरियां 2016 से 2021 के बीच आधी हो गईं। जूट, कपड़ा, होजरी और अन्य पारंपरिक श्रम गहन क्षेत्र, जिसने भारत के पहले औद्योगिकीकरण प्रयोगों को बढ़ावा दिया, आज दशकों के सरकारी उपेक्षा के बाद इन्हें ‘बीमार’ घोषित कर इनके कारखानों में तालाबंदी कर दी गई है।
ज़मीन, श्रम, संस्कृति
साथी डीएस गोहेन, सन् 1977 में असम से सीआईएसएफ जवान के रूप में बोकारो स्टील सिटी आए थे। दो साल बाद, जब वेतन और सेवा शर्तों को लेकर अर्धसैनिक बलों के भीतर एक महीने तक चले विद्रोह को भारतीय सेना लाकर कुचल दिया गया और सीआईएसएफ के 200 जवानों को आजीवन कारावास की सज़ा दी गई (जिसे बाद में कम कर दिया गया), इन 200 जवानों में से एक वो भी थे। तब से, गोहेन ने झारखंड क्रांतिकारी मजदूर संघ के बैनर तले राज्य में बेहतर कामकाजी परिस्थितियों के लिए विभिन्न आदिवासी ठेका मजदूरों के संघर्षों का नेतृत्व किया है।
इन लेखकों से बात करते हुए, कॉ. गोहेन ने बताया कि कैसे पिछले कुछ वर्षों में आरएसएस का प्रभाव बढ़ा है। पड़ोसी जिला हज़ारीबाग़ में रामनवमी जूलूस के दौरान दंगा-फसाद लगभग एक वार्षिक घटना बन चुका है, इससे बोकारो भी अछूता नहीं है। यहां 2016 में बजरंग दल ने मुस्लिम स्वामित्व वाली दुकानों में तोड़फोड़ किया और एक स्थानीय निवासी की पिटाई की। एक समय जुझारू ट्रेड यूनियन नेता एके रॉय का गढ़ रहे धनबाद लोकसभा क्षेत्र में भाजपा 2009 से आसानी से जीत हासिल कर रही है। वही सबसे अधिक मतदाताओं वाला विधान सभा क्षेत्र बोकारो, अभी भी महत्वपूर्ण बना हुआ है।
इस बीच, वहां से मुश्किल से 60 किलोमीटर दूर पारसनाथ पहाड़ियों (जिसे मारंग बुरु के नाम से भी जाना जाता है) में, हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली झामुमो सरकार बैकफुट पर है। यहां एक जैन तीर्थस्थल के पास मुर्गे की हड्डियां मिलने के बाद विवाद खड़ा हो गया। झामुमो ने जैन भावनाओं को शांत करने के लिए, इस स्थल को इको-टूरिज्म रेंज में परिवर्तित करने के लिए पिछली भाजपा राज्य सरकार की 2019 की अधिसूचना को जिम्मेदार ठहराया। सरकार के इस नरम रुख ने संथालों के बीच चिंता बढ़ा दी है, जो पहाड़ को देवता के रूप में पूजते हैं और इसे अपनी पैतृक भूमि पर कब्ज़ा करने की एक चाल के रूप में देखते हैं।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट और स्थानीय पारिस्थितिकी की तबाही के अलावा, भाजपा शासन के तहत आदिवासी संस्कृति के लिए बढ़ते खतरों को व्यापक रूप से साझा किया गया। यह बात बाउरी लोकशिल्पी एसोसिएशन के सदस्यों ने भी दोहराई, जो जन चेतना यात्रा रैली में बोकारो से शामिल हुए। यात्रा के बोकारो प्रवेश करने पर उन्होंने छऊ नृत्य का प्रदर्शन किया। लोक कलाकार रंगमंच की अपनी पुश्तैनी विधा को सरकारी मान्यता और समर्थन के लिए संगठित हो रहे हैं। आज के वक्त में उनकी आजीविका खतरे में है।
खेत, कारखाना, सड़क
अशोक जी, जिन्हें बिहार के रोहतास और सासाराम जिलों में प्यार से “नेता जी” कहा जाता है, एक ऐसा नाम है जो आज भी पुलिस प्रशासन के बीच एक बेचैनी पैदा करता है। यहां 2000 के दशक की शुरुआत में भी उन्होंने दलित खेतिहर श्रमिकों के बीच, बड़े जमींदारों के खाली पड़ी जमीनों को पुनर्वितृत किया था। जब हम भभुआ के पास मुसहर टोले में खाना खा रहे थे, तो यह जानकर अलग खुशी हुई कि जिस 120 बीघे (लगभग 74.4 एकड़) जमीन पर हम खड़े हैं, वह जमींदारों से जब्त की गई थी। जब यात्रा सासाराम शहर में प्रवेश करती है तो एक मतवाला पुलिसकर्मी भी मुट्ठियां तानकर रैली में शामिल हो जाता है।
आज, बिहार में स्थिति यह है कि जिनके नाम पर कुछ जमीन है वे भी रोजगार की तलाश में दूर-दूर तक पलायन करते हैं। रासायनिक पेस्टीसाइड, अधिक उपज देने वाले बीजों, यंत्रीकृत खेती और सिंचाई की बढ़ती लागत के साथ-साथ सरकारी खरीद या विपणन चैनलों की कमी के कारण, देश के बड़े हिस्से के लिए कृषि घाटे की सौदा बन गई है। “पीएम किसान” के तहत किसान परिवारों को सालाना ₹6,000 डेबिट किए जाते हैं, जिसे केंद्र सरकार की प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि के रूप में जाना जाता है, वह धरातल पर पूरी तरह से अपर्याप्त साबित हुआ है। यही कारण है कि भारत में सबसे घनी आबादी वाला राज्य देश में बाहरी प्रवासन का सबसे बड़ा स्रोत भी है।
ऐसे समय में, अशोक जी जैसे लोग, जिन्होंने कभी ज़मीन के लिए संघर्ष किया था, अब अपना ध्यान शिक्षा की तरफ़ लगा रहे हैं। सरकारी नौकरियाँ समाज में खुद को स्थापित करने का एक जरिया है, जिसे मीडिया में भी आये दिन हास्यास्पद ढंग से दिखाया जाता है, जैसे कि कैसे वैशाली में एक सरकारी शिक्षक को अपहरणकर्ता की बेटी से शादी करने के लिए उसकी कक्षा से बंदूक की नोक पर अपहरण कर लिया गया। अक्टूबर में लगातार तीन दिनों से अधिक अनुपस्थित रहने वाले 20 लाख स्कूली बच्चों के नाम काटने का बिहार सरकार का फैसला, राज्य में शिक्षा पर एक बड़ा झटका है। यात्रा के दौरान गया, कोंच, दाउदनगर, नासरीगंज और नोखा में सड़क किनारे हुई सभाओं में इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा हुई।
जैसे ही यात्रियों का दल उत्तर प्रदेश की बढ़ा, एक तनाव साफ झलक रहा था। अगला रात्रि पड़ाव चंदौली में था, जो वाराणसी से सटा एक जंगल और पहाड़ों वाला क्षेत्र है, जो 1980 के दशक तक जमींदारी प्रथा के खिलाफ कई संघर्षों का केंद्र था। क्या यात्रा 20 दिसंबर को पीएम मोदी के लोकसभा क्षेत्र में प्रवेश कर पाएंगे, जहां इसका समापन एक अन्य सार्वजनिक सम्मेलन में होना है? यह सवाल सबके जेहन में था।
इस साल जून में, बनारस शहर में कई बुनकर संगठनों द्वारा आयोजित कबीर यात्रा को यूपी पुलिस ने रोक दिया था। भक्ति संत कबीर बुनकर समुदाय से आते थे और अपने गृहनगर काशी की पहचान से बेहद करीब से जुड़े हुए थें। लेकिन, G20 फोटो शूट के लिए शहर में प्रधान मंत्री के आगमन का हवाला देते हुए अंतिम क्षण में एक सामूहिक सभा की अनुमति वापस ले ली गई थी। जब भी प्रधानमंत्री अपने लोकसभा क्षेत्र के दौरे पर आते है सामाजिक कार्यकर्ताओं को पुलिस के द्वारा उनके घर के अंदर कैद कर दिया जाता है। 17 दिसंबर को, प्रधान मंत्री की एक और यात्रा का मतलब प्रगतिशील कार्यकर्ताओं के लिए फिर से घर के अंदर कैद रहने का वक्त था। इस शहर को अपना घर कहने वाले समाजवादी नेता अफलातून देसाई को 17 दिसंबर को संयुक्त किसान मोर्चा की एक सभा में शामिल होने के रास्ते में हिरासत में ले लिया गया। पिछले दिसंबर में, जय किसान आंदोलन से जुड़े एक अन्य समूह को वाराणसी में उस समय हिरासत में ले लिया गया जब वो आज़मगढ़ के खिरिया का बाग जा रहें थे, जहां कई गांव एक नए हवाई अड्डे के लिए कृषि भूमि के जबरन अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। इसी प्रकार जुलाई में भी कई गांधीवादियों को हिरासत में ले लिया गया था जब उन्होंने सत्याग्रही विनोबा भावे के सर्व सेवा संघ से जुड़ी 12 इमारतों के विध्वंस को रोकने की कोशिश किया। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध के सिलसिले में आतंकवाद निरोधी दस्ते द्वारा शहर से 70 से अधिक लोगों को पूछताछ के लिए ले जाया गया है या फिर गिरफ्तार किया गया है।
हालांकि, भारी पुलिसिया तैनाती के बीच यात्रा चंदौली के सैदपुर से होकर गुजरी, जहां 19 दिसंबर को काकोरी के शहीदों अशफाकुल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल और रोशन सिंह को याद करते हुए किसानों के बीच एक सांस्कृतिक कार्यक्रम किया गया। अंत में, यह यात्रा अपने अंतिम मुकाम बनारस के प्रतिष्ठित लंका गेट तक पहुंची। जहां बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की सड़कें “इंकलाब ज़िंदाबाद” के नारों और लाल झंडो के समंदर में डूब गया। इसके बाद कार्यक्रम का समापन निषाद, बुनकर और मल्लाह समुदाय द्वारा यात्रियों को सम्मानित करके किया गया। उनकी आजीविका इस ऐतिहासिक शहर का एक अभिन्न अंग रही है, लेकिन आज उनके पारंपरिक पेशा को ख़त्म, एक मोनोपॉली चेन के जरिए ख़त्म करने की कोशिश की जा रही है।
इस यात्रा के दौरान सैकड़ों आम लोग हमारे परचे लेने के लिए आगे आए, सभा सुनने के लिए अतिरिक्त इंतजार किया। उनकी ऊर्जा सैकड़ों क्रांतिकारियों से आई, जो अलग-अलग देश भर में लाल झंडे को थामे हुए अलिखित, सामान्य जीवन जीते हैं। जिनकी आँखों में यह सपना है कि एक अलग दुनिया संभव है। यह हमें उस फासीवादी बुलडोजर के बारे में क्या बताता है जिसने आज भारत में संसदीय लोकतंत्र के अंतिम स्वरूप को भी नष्ट करना शुरू कर दिया है?
वर्तमान में आरएसएस की इस भव्य अलोकतांत्रिक परियोजना के प्रति मौजूदा माहौल निराशा का है, सहभागिता का नहीं। यह तीन दशकों में पैदा हुई निराशा है, जब एक उभरते कॉर्पोरेट वर्ग के साथ-साथ विभिन्न रूपों में उनकी जयजयकार करने वाली सरकारें, हमारे लोगों से उनकी सामूहिक ताकत को खत्म करने में लगी है। आगे एक लंबी रात हमारा इंतजार कर रही है। कारखानों, खेतों और सड़कों पर इस सामूहिक ताकत का पुनर्निर्माण किए बिना, कोई भी मसीहा फासीवादी धारा को नहीं रोक सकता।
यह उस लंबी यात्रा का निमंत्रण है।
जन चेतना यात्रा में भाग लेने वाले संगठन: अखिल हिंद फॉरवर्ड ब्लॉक (क्रांतिकारी), आजाद गण मोर्चा, बीएएफआरबी, बिहार निर्माण एवं असंगठित श्रमिक संघ, चायबागान संग्राम समिति, कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया, सीपीआई-एमएल (वर्ग संघर्ष), सीपीआई-एमएल ( न्यू डेमोक्रेसी), सीपीआई-एमएल (क्रांतिकारी पहल), प्रतिरोध में नारीवादी, जनवादी लोक मंच, मार्क्सवादी समन्वय समिति, मजदूर क्रांति परिषद, नागरिक अधिकार रक्षा मंच, पीसीसी सीपीआई-एमएल, पीडीएसएफ, श्रमजीबी नारी मंच, संघर्षरत श्रमिक समन्वय समिति
कॉ. शांभवी शर्मा महासचिव और कॉ. शौर्य मजूमदार कलेक्टिव दिल्ली राज्य समिति के संयुक्त सचिव हैं।
कॉ. प्रभात दिल्ली विश्वविद्यालय इकाई समिति के सदस्य है।