ठीक 50 साल पहले, आज ही के दिन, 9 जुलाई 1972 को, दलित पैंथर्स का गठन हुआ था।
जब इंदिरा गाँधी की सरकार आज़ादी के 25 वर्ष के ताम-झाम में व्यस्त थी, दूसरे तरफ देश के शोषित-उत्पीडित जनता पर दमन बढ़ता चला था. ज़मीन के पुनर्विभाजन के मांग के साथ, दादासाहेब गैक्वाद के नेत्रित्व में, मराठवाडा में 1 लाख से ऊपर दलित-भूमिहीन जेल गये. 1969 में, तमिल नाडू के किल्वेंमनी गाँव में उच्च जाति के ज़मींदारों ने 44 दलितों का खुलेआम नरसिंहर किया तो सरकार-पुलिस-कोर्ट और यहाँ तक की ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर वोट मांगने वाली पार्टियाँ हत्यारों के साथ खड़ी हुई. 60 और 70 के दशक में भारत वर्ष और पूरे विश्व के ज्वलंत परिस्थितयों के पृष्ठभूमि पर हुई दलित पंठेर्स की स्थापना। वियतनाम में अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रहार, नस्लवाद के खिलाफ ब्लैक पंठेर्स पार्टी के मिलिटेंट संघर्ष, एशिया-अफ्रीका के मुक्ति-संग्राम और हमारे देश में नक्सलबारी के दलित-आदिवासी खेत मज़दूरों द्वारा छिरी गयी भूमि आन्दोलन–इन से प्रेरणा लेते हुए मुंबई के कमाठीपुरा बस्ती में दलित पंठेर्स लिया जन्म.
दलित पंठेर्स के सह-संस्थापक राजा ढाले पर देश-द्रोह का मुकदमा लगाया गया. पुणे से प्रकाशित ‘साधना’ पत्रिका के एक लेख में उन्होंने पूछा था की अगर आज़ाद भारत में ‘तिरंगा के अपमान’ के लिए 10 साल की सज़ा हो सकती है लेकिन दलित महिला के बलात्कारियों को केवल 50 रुपये जुर्माना पर बैल दिया जाता है तो दलितों के लिए तिरंगा किस काम का? दलित पंठेर्स ने आज़ादी के 25 साल के उत्सव का बहिष्कार करने का आह्वान दिया.
दलित पैंथर्स ने सामूहिक एकजुटता बनाने की तरफ, अपने घोषणापत्र में दलित शब्द की परिभाषा को, और विस्तारित किया। दलित पंठेर्स के घोषणा पत्र में लिखा गया: ”यदि आज हमने दलित अस्पृश्य जीवन के एक क्रन्तिकारी स्वरुप का निर्धारण नहीं कर लिया तो सामाजिक क्रांति की इच्छा रखने वाला एक भी व्यक्ति भारत में जिंदा नही बचेगा… अब यह दलित केवल वेश-बाहर या ग्रन्थ-बाहर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह जिस तरह दलित है, अछूत है, उसी तरह कामगार है, खेतमजदूर है,भूमिहीन है, सर्वहारा है.’ उन्होंने यह ऐलान किया की हर कोई जो इस व्यस्था से शोषित है–अनुशूचित जाति एवं जन-जाति, मजदूर , भूमिहीन व गरीब किसान, महिलायें और अमरीकी साम्राज्यवाद के गुलाम ‘तीसरे जगत’ के देशवासी–जिसका भी किसी रूप में राजनैतिक, आर्थिक या धर्म के आधार पर शोषण किया जाता हो, वो सब दलित है।
जहाँ पूंजीपति, ज़मींदार, और हर वो राजनीतिक दल जो जात-धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं, वह दलित वर्ग के शत्रु है। और जो भी क्रांतिकारी संगठन इस व्यस्था के खिलाफ संगर्ष कर रहे हैं, जो सही मैंने में समाजवादी समाज-रचना के लिए संघर्षरत है, और जो जंता इस व्यस्था से उत्पीड़ित है, वे उनके मित्र हैं। जाती विनाश के लिए दलित पैंथर्स की कुछ प्रमुख मांगो में जमीन का पुनर्विभाजन, बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण एवं समाजीकरण, सब को मुफ़्त शिक्षा एवं चिकित्सा की सुविधाएं, हर उत्पादन के संसाधन पर शोषित वर्ग के लिए आरक्षण, इत्यादि थी।
दलित पैंथर्स संगठन की स्थापना आज़ादी के 25 वर्ष बाद हुई, इस समझ के साथ कि आज़ादी के बाद भी दलितों, मजदूरों और किसानों की मूल समस्या जस की तस रही। और आज जब देश आज़ादी का 75वां वर्ष मनाने जा रहा है, तब भी हम देख सकते है कि, तमाम सरकारी प्रणाली और RSS BJP के हिन्दुत्ववादी ताकतें किस तरह आज भी दलितों, मजदूरों और किसानों को उत्पीड़ित कर रहे हैं। कभी वो मेहनतकश अवाम पर कॉर्पोरेट-हितेइशी नीतियों को थोपती है तो कभी वो SC/STअत्रोसिटी कानून और आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों को खत्म करती है। अतः, ऐसे समय मे, दलित पैंथर्स का इतिहास हमे सिखाता है की जाति विनाश के लिए, सिर्फ सत्ता परिवर्तन नही, व्यवस्था-परिवर्तन के संघर्ष को आगे ले जाना महत्वपूर्ण है। ऐसे समय में हम सब के लिए यह जरूरी है कि हम शिक्षित बने, संघर्ष करे, संगठित हो–उस दमन मुक्त दुनिया को बनाने के लिए जिसकी कल्पना दलित पैंथर्स ने की थी।