‘लोक संस्कृति’ बनाम जनवादी संस्कृति

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मानव इतिहास के प्रगति के साथ विकसित ‘लोक संस्कृति’ में रोज़मर्रा के ज़िन्दगी के गति की प्रतिच्छाया ढूंढ पाना वाज़िब है। भाषा, शैली, आचरण, रीति-रिवाज़ और वेश-भूषा हमारे सामाजिक ढाचे को बनाये रखने के ज़रूरतों के हिसाब से कई बदलावों से गुज़रते हैं। इतिहासकार पाते है की अफ्रीका से अमेरिका लाये गए नीग्रो गुलामों ने मालिकों के मौजूदगी में एक-दुसरे से बातचीत करने के लिए ऐसे बोली को ईजाद किया जो ना अंग्रेजी और ना ही किसी एक अफ़्रीकी भाषा से पूरी तरह मिलती हो। उसी प्रकार, असम और दार्जीलिंग के बागानों में चाय पत्ता तोड़ने वक्त महिलाएं कदम-से-कदम मिलाकर अपने गीत गाती हैं तो कृषि से जुड़े समुदाय वैशाखी, ओणम और बिहू जैसे त्योहार मनाते आये है। यह हमारी विरासत है और इन्ही में श्रम, उत्पादन और समाज के विभाजन के सबूत छिपे हुए है।

यह भी सच है की इस लोक संस्कृति पर वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था निरंतर वार करती रहती है। विविधता को ख़त्म करना, हर संस्कृति, हर पद्धति के विशिष्टता को मिटाना ‘मास प्रोडक्शन’ के दौर की ज़रुरत है। ऐसे समय में लोक संस्कृति को बचाना एवं उसके उत्थान पर ज़ोर देने की ज़रुरत है। इस परिवर्तनकामी परियोजना में जुड़े साथियों के लिए कॉ. निलेश पराग (देवास, मध्य प्रदेश) के कुछ सवाल।

लोकगीत, लोक जीवन के दर्पण होते हैं। किसी भी लोक संस्कृति को समझना है तो उसके लोकगीतों को सुनना चाहिए, चूँकि यह लोक संस्कृति है तो सिर्फ मौखिक रुप में ही उपस्थित रहती है। छत्तीसगढ के लोक जीवन में पंडवानी लोकगीत गाया जाता है जो महाभारत के कई अतार्किक पहेलूओं का महिमामंडन करता है, जैसे उदाहरण के लिए: तीर से पुल बना देना, मृत बच्चे को शक्तियों द्वारा जीवित कर देना और ऐसे कईं अनेक। कुछ अन्य लोकगीतों में कहा गया है: ‘चमके माथे ऊपर चंदा, गले में नाग भुजंगा जिनके सर पर बह रही गंगा।’ ऐसे लोकगीत समाज को एक काल्पनिक, अतार्किक और अंधविश्वास वाली दुनिया से जोड़ते हैं। कुछ वैवाहिक लोकगीतों में महिला-विरोधी कृत्यों का जश्न मनाया जाता है, जैसे एक गीत के शब्द इस तरह हैं:

रामा लखन चारो भैया, लखन चारो भैया
दूल्हा बने भगवान, बिटिया पराए घर की हो गई
लेलो कन्यादान, बिटिया पराए घर की हो गई।
सखियां गाए मंगल गान, बिटिया पराए घर की हो गई।

पहली बात तो लड़की कोई दान देने की वस्तु नही है दुसरी बात लड़की पराए घर की हो गई तो सखियां मंगल गान क्यूँ कर रही है? क्या वह परिवार पर बोझ है? माता-पिता के घर जन्म लड़के-लड़की दोनो लेते हैं। लड़का अपने घर का रहता है और लड़की उन्ही माता-पिता द्वारा पैदा हुई लेकिन वो पराए घर की क्यों? देश के लगभग सभी लोक संस्कृतियों में सिर्फ महिलाओं की वेशभूषा ही जटिल रुप में बुनी गई जिसमें वे मर्दों की तुलना में कम सहज रह पाएं, ऐसा क्यों? इसके अलावा कईं लोकगीतों में देवी-देवताओं को खुश करने के लिए व्रत, पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठान का बखान मिलता है, साथ ही संतान प्राप्ति के लिए भी देवी देवताओं को रिझाने की परंपरा है। जैसे बिहार समेत देश के कई क्षेत्रों में छठ लोकपर्व मनाया जाता है जिसमें महिलाओं के द्वारा मनोईच्छा की पूर्ति हेतू व्रत रखा जाता है, जिसका जिक्र इसके ‘पहिले पहल हम कैली छठी मैया व्रत तोहार’ जैसे लोकगीतों में भी मिलता है।

लोक जीवन में उपस्थित विभिन्न धर्मों और समाज में बढ़ती विषमताओं और अंधविश्वास को समाप्त करने के लिए निर्गुण भक्ति धारा के के ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी कवियों का उदय हुआ। जिनमें कबीर, रैदास, मीरा, बाबा फरीद, दादु दयाल, जायसी, रहीम जैसे कवि हुए। लोक जीवन में बढ़ते शोषण और असमानताओं के बीच निर्गुण भक्ति धारा ने चेतना स्त्रोत का काम किया। धीरे-धीरे लोक जीवन में निर्गुण भक्ति धारा के पद और दौहे गाने का प्रचलन बढ़ा। निर्गुण शैली के गीतों का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि स्वयं शोषित वर्ग ने छूआछूत, भेदभाव और जातिवाद के खिलाफ अपने ही वर्ग को सशक्त और जागरुक करने के लिए संगीत द्वारा अपनी आवाज को बुलंद किया। आज भी लोक जीवन में निर्गुण शैली उसी उद्देश्य के साथ मुख्यतः दलित, पिछड़े व आदिवासियों के द्वारा गाई जाती है। आगे जाकर निर्गुण लोक संस्कृति कुछ हद तक भारतीय अभिजात संस्कृति में भी प्रचलित हुई। निर्गुण शैली में सबसे ऊपर नाम आता है कबीर का। कबीर अपने युग से आज तक के सबसे महान और सबसे क्रांतिकारी कवियों-समाज सुधारकों में से एक हैं, जिन्होने पाखंडवाद, सामाजिक कुरीतियों, छुआछुत व बाह्य आडंबरों पर करारी चोट पहुंचाई। उन्होनें अपने समय के धार्मिक कट्टरपंथियों, और धर्म के बीच भेद पैदा करने वालों के खिलाफ भी बेबाक लेखनी चलाई जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। उन्होने लिखा कि:

मूंड मुड़ाए हरि मिले, सब कोइ लेय मुड़ाय।
बार बार के मूंडते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय।।

इसका भाव यह है कि माला जपना, व्रत करना, गेरुआ वस्त्र धारण करना, तिलक लगाना, और नाना प्रकार के पाखंडों से ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। अगर सिर के बाल मुंडाने से ईश्वर मिलता तो भेड़ कबके बैकुण्ठ चले जाते। उन्होंने अपने समय के धार्मिक कट्टरपंथियों और धर्म के बीच भेद पैदा करने वालों के खिलाफ भी बेबाक लेखनी चलाई, जो आज के परिपेक्ष्य में भी प्रासंगिक है, जैसे:

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क (मुसलमान) कहें रहमाना
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।

यानि, दोनो धर्मों के लोग अपने धर्म को बड़ा बताने में, और अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करने में खुब लड़े, धार्मिक हत्याएँ की मगर दोनों ही ईश्वर के मर्म को, सार को समझ नही पाए।

वहीं कबीर ने छूआछूत और जात-पात के खिलाफ भी आवाज उठाई। इसी संदर्भ में उनका एक दोहा इस प्रकार है:

जो तूं ब्राह्मण , ब्राह्मणी का जाया
आन बाट काहे नहीं आया।

इसमें कबीर का भाव है कि, जो लोग अपने जन्म के आधार पर ही बड़े होने का दावा करते हैं, अपनी जाति के नाम पर अभिमान करते हैं, वे भी उसी रास्ते से पैदा हुए हैं जहाँ से बाकि सब, तो फिर ये ऊंच-नीच, जात-पात का भेद क्यूँ?

इसी क्रम में रैदास भी बहुत प्रासंगिक हैं, जिन्होने अपने दर्शन में ‘बेगमपुरा’ संकल्पना की बात पर जोर दिया। बेगमपुरा एक ऐसा आदर्शवादी देश है जहाँ कोई जात-पात, ऊँच-नीच, चिंता-भय और कोई उलझन नही हैं। उस देश में समानता और प्रेम के अलावा कुछ भी नही। रैदास के कईं पद निर्गुण लोक संस्कृति का अभिन्न अंग हो गए, जिसे निर्गण लोक शैली में ही गाया जाने लगा। रैदास ने अपने एक पद में धार्मिक पवित्र स्थलों के सम्बन्ध में कहा कि:

का मथुरा, का द्वारका अरु का कासी हरिद्वार,
रैदास खोजा दिल अपना, तउ मिलिया दिलदार।

यानि मथुरा, द्वारका, कासी या धार्मिक स्थलों पर भटकने से सत्य की प्राप्ति नही होगी, बल्कि सत्य मंदिर-मस्जिदों की बजाय स्वयं के अंतर्मन या दिल में है। आज के परिपेक्ष्य में बात करें तो क्या हम रैदास के बेगमपुरा देश में पहुंच चुके हैं या नही? वह लड़ाई जो निर्गुण धारा के कवियों और समाज सुधारकों ने जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शुरु किया था, क्या वह लक्ष्य प्राप्त करने में हम सफल रहे? या नही? मुझे लगता है नही , अभी बहुत कठिन है ड़गर पनघट की।

दुसरा सवाल, क्या हमें पुरी लोक सँस्कृति को बचाने की या जीवित रखने की जरुरत है? मुझे लगता है जिस लोक संस्कृति में जात-पात का भेद है, असमानता व हिंसा है, अन्ध्विश्वास है या जिसमें ब्राह्मणवादी विचारों का महिमामंडिन किया गया है उन तमाम विचारधाराओं पर गहरा आघात कर उन्हें समाप्त कर देने की आवश्यकता है। बेशक लोक संस्कृति में बहुत सी चीजों को संभालने की जरुरत हैं जैसे उसकी लोक कलाएँ, वसंत और ऋतु गीत, लोक बोलियाँ, लोक नृत्य और अंतत: निर्गुण शैली के वे गीत जो तार्किक भी है और वैज्ञानिक भी, ये लोकगीत मानवीय भेदभाओं को दुर कर मधुर मानवीय संबंध स्थापित करने में अहम भुमिका निभाते हैं।

अत: लोक संस्कृति में से आवश्यक तत्वों को विवेक से चुन कर, छान कर अमल में लाने की जरुरत है। जिस प्रकार किसी भी अभिजात या चालित संस्कृति को निर्विरोध स्वीकार नही किया जा सकता, उसी प्रकार लोक संस्कृति के अवगुणों को सेनीटाइज किए बगैर स्वीकार नही किया जाना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार माता सावित्री बाई, ज्योतिबा और बाबा साहब ने निर्गुण लोक संस्कृति से प्रेरणा लेकर बहुजनों और शोषितों का मार्ग प्रशस्त किया। जिस दिन हम निर्गुण लोक साहित्य के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे उस दिन तुम भी कबीर, मैं भी कबीर और हम सब कबीर हो जाएंगे।

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