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रमाशंकर यादव विद्रोही
जब भी किसी
ग़रीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया,
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को
उठाकर पटक दूँ!
इसका गूदा-गूदा छींट जाए।
मज़ाक़ बना रखा है तुमने
आदमी की आबरू का।
हम एक बित्ता कफ़न के लिए
तुम्हारे थानों के थान फूँक देंगे
और जिस दिन बाँहों से बाँहों को जोड़कर
हूमेगी ये जनता,
तो तुम नाक से ख़ून ढकेल दोगे मेरे दोस्त!
बड़ा भयंकर बदला चुकाती है ये जनता,
ये जनता तुम वहशियों की तरह
बेतहाशा नहीं पीटती,
सुस्ता-सुस्ता कर मारती है ये जनता,
सोच-सोच कर मारती है ये जनता,
जनता समझ-समझ कर मारती है, पिछली बातों को।
जनता मारती जाती है और
रोती जाती है,
और जब मारती जाती है तो
किसी की सुनती नहीं,
क्योंकि सुनने के लिए उसके पास
अपने ही बड़े दु:ख होते हैं।