संपादकीय (नवम्बर 2022)

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औपनिवेशिक काल के समय के छात्र-युवा आंदोलन पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि इस दौरान वे केवल ‘अपने’ मुद्दों के लिए नहीं बल्कि उपनिवेशवाद – सम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने के लिए संघर्ष में आए थे। हमारे दौर में झुझारू ताकतो के लिए इतिहास में हुए आंदोलनों में छात्रों-युवाओं की भागीदारी का सही आकलन करना जरूरी है। क्रन्तिकारी धारा से जुड़े साथियों के लिए ये जानना केवल उस समय के आंदोलनों की नकल करने तक सिमित नहीं है। क्योंकि यह बात सही है कि हमारे समय में शिक्षा, रोजगार व बाकि क्षेत्र में पूंजी का प्रभुत्व दुनिया भर में पहले से कई ज्यादा बढ़ा है, इसलिए पूंजीवाद – साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में इन मुद्दों से जुड़े आंदोलनों की भूमिका भी बढ़ी है।

दुनिया भर में दक्षिण पंथी और फासीवादी ताकतों का उभार हुआ है। तुर्की में एर्दोगान, हंगरी में विक्टर ओरबन, फिलीपींस में डुटर्टे और अपनी हालिया चुनावी हार तक, ब्राजील में जायर बोल्सोनारो ने आक्रामक राष्ट्रवाद के नाम पर देश-हित को पूंजी के हाथो बेच दिया है। यह वैश्विक साम्राज्यवादी पूंजी—अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन (WTO) और अन्य वैश्विक संस्थानों—के हितों का अगुवाई करने के लिए किया जा रहा है। अमेरिका में दक्षिण पंथी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ‘देश-हित’ की बात की, लेकिन उसमे लोक-हित शामिल नहीं थे। हमारे दौर में ‘देश-हित’ पूंजीपतियों का हित होता जा रहा है। इसपर गौर करने की ज़रुरत है, ख़ास कर जब भारत देश के दो पूंजीपति अम्बानी और अडानी दुनिया के दस सबसे आमिर लोगो में शामिल हो गए है। केवल भारत में ही नहीं, एशिया, अफ्रीका और बाकि देशो के पूंजीपति सम्राज्यवादी ताकतों के साथ हाथ मिला चुके है। अब उनके हित और वैश्विक पूंजी के हितो के बीच एक स्थायी संबंध बन चुका है। इस वर्ग से साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना नहीं उभर सकती। उनकी कोशिश है की ‘देश हित’ के मतलब को अपने अनुसार बदलकर वैश्विक पूँजी के साथ ‘बेहतर सहयोग’ बनाया जाए। फासीवादी और दक्षिण पंथी ताकतों ने इस गठजोड़ को और मजबूती प्रदान की है। देश में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर जन-पक्षीय और जन-कल्याण के जरुरी मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है।

हमारे आज की दुनिया वित्तीय पूंजी द्वारा संचालित है, जिसका राजनितिक प्रतिनिधित्व अमेरिका करता है। वित्तीय पूंजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियो के हितो को बढ़ावा देती है। अभी हाल के कुछ सालो में दुनिया की राजनीती में रूस और चीन का दबदबा बढ़ा है, फिर भी ज्ञान, पूंजी, तकनीक और सैन्य क्षमता समेत ज्यादातर छेत्रो में अमेरिका और जी-7 के देशो का ही बोलबाला है। रूस और चीन के खिलाफ दुनिया भर में एक तरह का प्रचार तंत्र अमेरिका द्वारा काम पर लगाया गया है। लेकिन यह भी कहना गलत नही होगा की रूस और चीन द्वारा अमरीकी सत्ता को जो चुनौती मिल रही है वो वहां के मेहनतकश जनता के हितो को नजरअंदाज करके मिल रही है। इनको साम्राज्यवाद-विरोधी ताकते नहीं मान सकते है। ऐसे में बहुधुर्वीय वैश्विक समीकरण (मल्टी-पोलर जियोपोलिटिक्स) का होना भी वामपंथी राजनीती को कोई फायदा नहीं पहुंचा रहा। बीसवीं सदी में सम्राज्य्वाद के खिलाफ एक तरफ जहाँ समाजवादी और मुक्ति संग्रामों की धुरी तैयार हुई थी, अभी के दौर में ऐसी कोई धुरी दुनिया की राजनीती में मौजूद नहीं है।

इसका मतलब ये हुआ कि आज की क्रन्तिकारी वामपंथी अपने देश के बुर्जुवा वर्ग या तथाकथित ‘अमेरिका-विरोधी’ गुट में से किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकती। वामपंथी राजनीती को मेहनतकश वर्ग के राजनीतिक चेतना के माध्यम से ‘राष्ट्रीय हित’ को दुबारा से परिभाषित करने का प्रयास करना होगा। आज क्रान्तिकारियों को जनता के बीच साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को इस विश्वास के साथ रखना पड़ेगा कि अंततः मेहनतकश जनता ‘राष्ट्रीय हित’ को खुद के लिए गढ़ पाए। हर जगह के अनुभव बताते हैं कि यदि सत्ता बनाना या बनाए रखना नवउदारवादी व्यवस्था को टिकाए रखने से ही आ सकता है, तो वामपंथियों को हर हाल में नवउदारवाद को चुनौती देते हुए सामाजिक परिवर्तन की राजनीतिक पहल करनी पड़ेगी। सत्ता में आने के बाद ऐसे जनसंघर्षों को दरकिनार करके सरकार बनाए रखना आज हमारा मक़सद नही हो सकता है। क्रांतिकारियों को मज़दूर, किसान और छोटे उत्पादकों के राजनीतिक आंदोलन एवं आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए हो रहे संघर्षो के बीच से एक नए तरह का ‘विद्रोही राष्ट्रवाद’ पैदा करना पड़ेगा। ऐसा राष्ट्रवाद ही साम्राज्यवाद द्वारा खींची गई सीमाओं के बाहर ‘राष्ट्रीय हित’ को फिर से परिभाषित कर सकता है। इस तरह के विद्रोही राष्ट्रवाद अपने स्थानीय/राष्ट्रीय संदर्भों के प्रतीकों और इतिहास के ऊपर खड़े होंगे मगर अपने विषय, विचारो, लक्ष्यों, उम्मीदों और भावनाओ में अंतर्राष्ट्रीयवादी होंगे। वे जिन मूल्यों के लिए प्रयास करेंगे वे सही मायनो में समानता, स्वतंत्रता, सहयोग, न्याय और विविधता के मूल्य होंगे।

आइए हम ‘छात्र मुद्दों’ या ‘युवा मुद्दों’ पर अपनी चर्चा पर लौटते हैं, जिसके साथ हमने शुरुआत की थी। अगर हम शिक्षा और रोजगार के मुद्दों से जुडो आंदोलनों की बात करे और उसके भीतर की बारीकियों पर ध्यान दे तो पिछले कुछ सालो में फ़ीस-वृद्धि, कैंपस फ्रीडम, अकादमिक फ्रीडम, निजीकरण या विश्वविद्यालय-उच्च शिक्षा सम्बन्धित नीतियों और कानूनों को लेकर संघर्ष हुए है। छात्रों और युवाओ की राजनितिक लामबंदी कुछ आंशिक मुद्दों के इर्द गिर्द होती रही है। ऐसे मुद्दे जो आबादी के एक विशेष वर्ग को सीधे प्रभावित करते हैं। छात्र-युवाओं के बीच से सामाजिक मुद्दों, वैचारिक राजनीती और जमीनी आंदोलन से जुड़े सवाल गायब होते जा रहे है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की हेजेमनी ने हमारे ‘कॉमन सेंस’ को पूरी तरह एक तरफा, विचारहीन और स्वार्थी बना दिया है। क्रांति की बात हो तो यह इस ‘कॉमन सेंस’ से हटकर सुनाई देती है। ऐसे में समाज व इससे जुड़े मुद्दों को लेकर वैचारिक चेतना गायब होती जा रही है। इसलिए हमारे पीढ़ी में राजनैतिक शिक्षा का बहुत महत्व है। ऐसा मान लेना कि छात्रों और युवाओ को राजनीती में कोई दिलचस्पी नहीं है सरासर गलत होगा। साम्राज्यवाद-विरोधी विचारधारा, सांस्कृतिक विविधता का सम्मान, समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों में हमारा विश्वास और एक बेहतर भविष्य बनाने के सपने क्रांति और क्रांतिकारियों से नहीं छीने जा सकते।

[यह लेख कलेक्टिव अंक 6 (नवम्बर 2022) में प्रकाशित हुआ है। पूरे पत्रिका को पढने के लिए क्लिक करे। (PDF)]

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